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साल की पहली फिल्म का हाल

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साल 2013 की शुरुआत बॉलिवुड के लिए बेहद ठंडे तरीके से हुई. यूं भी नए वर्ष के शुरुआती सप्ताह में ही फिल्में रिलीज करने का जोखिम आज भी कोई निर्देशक नहीं उठाता. इस साल भी ऐसा हुआ है. साल के पहले सप्ताह में रिलीज हुई फिल्में बेहद सामान्य साबित हुईं और यह किसी भी तरह से किसी भी कसौटी पर खरी नहीं उतरीं.


इस साल की पहली फिल्म रही टेबल नं.21. साल की पहली फिल्म होने की वजह से लोगों का इस फिल्म के प्रति क्रेज काफी था लेकिन फिल्म को देखने के बाद यह जोश मौसम की तरह ठंडा पड़ चुका है. आइए जानें आखिर ऐसा क्या है टेबल नं. 21 में कि कोई भी इस टेबल पर बैठना नहीं चाहता.


कलाकार: राजीव खंडेलवाल, टीना देसाई, परेश रावल, ध्रुव गणेश, हनीफ हिलाल, आशीष कपूर

निर्देशक: आदित्य दत्त

निर्माता: विक्की राजानी और सुनील लुल्ला

बैनर: ईरोज इंटरनेशनल

संगीत: गजेन्द्र वर्मा, सचिन गुप्ता

लेखक: श्रीशंख आनंद और शांतनु राय छिब्बर

रेटिंग: *


कहानी

विवान (राजीव खंडेलवाल) को नौकरी‍ की तलाश है. इसी भागमभाग में एक दिन उसे और उसकी पत्नी सिया (टीना देसाई) को फिजी यात्रा का  ऑफर मिलता है. आने-जाने सहित सारी पांच सितारा सुविधाएं उन्हें फ्री में मिलती हैं. एक रिसॉर्ट में उनकी शादी की पांचवी वर्षगांठ को भव्य तरीके से मनाया जाता है.



यहां उनकी मुलाकात रिसॉर्ट के मालिक खान (परेश रावल) से होती है जो दोनों के आगे एक गेम खेलने का प्रस्ताव रखता है. इस गेम के अनुसार इसमें उनसे आठ सवाल पूछे जाएंगे जिसका जवाब हां या ना में देना होता है और हर जवाब के बाद एक टास्क करना होता है. इन सब के बदले खेलने वाले को 21 करोड़ रुपए देने का वादा किया जाता है.


विवान और सिया गेम खेलने के लिए राजी हो जाते हैं और पहले दो-चार करोड़ तो वह आसानी से जीत लेते हैं. लेकिन इसके आगे गेम बेहद मुश्किल हो जाता है. शाकाहारी होने के बावजूद इसके लिए सिया को मेंढक तक खाने पड़ते हैं. वो खा भी लेती है. सिया को विवान को झापड़ मारने पड़ते हैं और विवान को उसका सिर मूंढना पड़ जाता है. एक मौके पर सिया को बचाने के लिए उसे अपना आधा लीटर खून तक इकट्ठा करना पड़ता है. विवान को अनजाने लोगों संग मारपीट तक करनी पड़ती है और सिया की इज्जत तक पर बन आती है.


धीरे-धीरे दोनों को समझ में आने लगता है कि यह कोई गेम शो नहीं बल्कि पति और पत्नी को अलग करने के लिए एक साजिश है. उन्हें समझ आता है कि खान को उनकी जिंदगी का हर पहलू पता है और यह सब उनके साथ प्री-प्लान तरीके से हो रहा है. यहां फिल्म आपको संजय दत्त की “जिंदा” की तरह लगेगी. आगे की कहानी आपको सिनेमाघर में ही देखनी होगी.


फिल्म की समीक्षा

यह फिल्म बनाने के पीछे एक अच्छा मैसेज तो है लेकिन इसको प्रस्तुत करने का तरीका बेहद बेकार है. फिल्म में देश के अलग-अलग हिस्सों में कॉलेजों एवं विभिन्न शिक्षण संस्थानों में होने वाली रैगिंग की घटनाओं को एक साथ जोड़ा गया है. फिल्म का संदेश भी यही है कि लोग रैगिंग से दूर रहें. आज हम सब जानते हैं कि इंसान गुस्से में अपनी सारी हदें पा कर जाता है और एक छोटी-सी घटना भी किसी की जान ले सकती है. इस फिल्म में भी यही बताया गया है.


जहां तक अभिनय की बात है परेश रावल ने सबसे अच्छा काम किया है. राजीव खंडेलवाल और टीना देसाई का अभिनय बेहद औसत रहा है. फिल्म में संगीत का कुछ खास स्कोप नहीं है. लेकिन फिर भी जो दो गानें फिल्म में फिट किए गए हैं वह सही लगते हैं.


कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि साल की पहली फिल्म मौसम की तरह ही ठंडी है.


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