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शंघाई: जमीन पर कब्जे की कहानी

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Shanghai: Movie Review‎

हिन्दी सिनेमा जगत में इन दिनों लीक से हटकर फिल्में बनाने का दौर चल रहा है. आपको हर दूसरी या तीसरी फिल्म में कहानी का सबजेक्ट अलग देखने को मिलेगा. यूं तो बॉलिवुड में मसाला फिल्मों का चलन जोरों पर है लेकिन जब बात सफलता की आती है तो बाजी लीक से हटकर बनने वाली फिल्में ही मार लेती हैं. ऐसी ही एक फिल्म इस हफ्ते आई है शंघाई. भारत में जमीन हड़पने की खबरें अक्सर आती हैं जिनमें से कई बार आवाज उठती है तो कई बार नहीं. फिल्म “शंघाई” भी इसी विषय को दर्शाती है.


बैनर: पीवीआर पिक्चर्स

निर्माता: अजय बिजली, दिबाकर बैनर्जी, प्रिया श्रीधरन, संजीव के. बिजली

निर्देशक: दिबाकर बैनर्जी

संगीत: विशाल-शेखर

कलाकार: इमरान हाशमी, अभय देओल, कल्कि कोचलिन, प्रसन्नजीत चटर्जी

रेटिंग: ***


शंघाई की कहानी

शंघाई एक ऐसे शहर की कहानी है जहां पर सरकार और स्थानीय पार्टी ने नागरिकों को सपना दिखाया है कि जल्दी ही उनका शहर शंघाई हो जाएगा. फिल्म में बिल्डरों, नेताओं की सांठ-गांठ दिखाई गई है, जिसके सामने आम आदमी अपनी ही जमीन छोड़ने पर मजबूर हो जाता है. फिल्म की कहानी “भारत नगर” की है जहां की जमीन पर कुछ बड़े बिल्डर कब्जा करने की फिराक में हैं. ऐसे में एक आरटीआई कार्यकर्ता इस गड़बड़ी के खिलाफ आवाज उठता है लेकिन उसको एक रोड एक्सीडेंट में मार दिया जाता है. इस कार्यकर्ता की हत्या के बाद मामला काफी तनावपूर्ण हो जाता है और मुख्यमंत्री एक अहम अफसर को इस मुद्दे की जांच के लिए भेज देता है. इस कार्यकर्ता की शिष्या का किरदार कल्कि कोचलिन ने निभाया है. पूरे फिल्म के दौरान आपको कल्कि सिर्फ रोती हुई नजर आएंगी.


इस सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या के बाद एक आईएएस ऑफिसर (अभय देओल) मामले की छानबीन शुरू करता है. इसी दौरान आईएएस ऑफिसर का सामना होता है, एक स्थानीय वीडियोग्राफर (इमरान हाशमी) से. इसके बाद इमरान पूरी फिल्म में छाते चले जाते हैं. यहीं से फिल्म आगे बढ़ती है और धीरे-धीरे कहाने के पत्ते खुलते चले जाते हैं.


फिल्म समीक्षा

शंघाई दिबाकर बनर्जी की चौथी फिल्म है. खोसला का घोसला, ओय लकी लकी ओय और लव सेक्स धोखा के बाद अपनी चौथी फिल्म शंघाई में दिबाकर बनर्जी ने कुछ बेहतरीन करने की कोशिश की है. 21वीं सदी में आई युवा निर्देशकों की नई पीढ़ी में दिबाकर बनर्जी अपनी राजनीतिक सोच और सामाजिक प्रखरता की वजह से विशिष्ट फिल्मकार हैं. शंघाई में उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि मौजूद टैलेंट, रिसोर्सेज और प्रचलित ढांचे में रहते हुए भी उत्तेजक संवेदना की पक्षधरता से परिपूर्ण वैचारिक फिल्म बनाई जा सकती है.

शंघाई में इमरान हाशमी ने अपनी छवि से अलग जाकर कस्बाई वीडियोग्राफर की भूमिका को जीवंत कर दिया है. उन्होंने निर्देशक की सोच को बखूबी पर्दे पर उतारा है. टी ए कृष्णन जैसे रूखे, ईमानदार और सीधे अधिकारी की भूमिका में अभय देओल जंचते हैं. उनका किरदार एकआयामी लगता है, लेकिन चरित्र की दृढ़ता और ईमानदारी के लिए वह जरूरी था. अभय देओल पूरी फिल्म में चरित्र को जीते रहे हैं. कल्कि कोचलिन दुखी और खिन्न लड़की की भूमिका में हैं. उन्हें टाइपकास्ट होने से बचना चाहिए.

इस फिल्म का पार्श्व संगीत उल्लेखनीय है. दृश्यों की नाटकीयता बढ़ाने में माइकल मैकार्थी़ के पार्श्व संगीत का विशेष योगदान है. शंघाई में विशाल-शेखर का संगीत सामान्य है. अंत में संगीत के नाम पर आपको सिर्फ “भारत माता की जय” गीत ही याद रह पाता है.

इस फिल्म में आपको राउड़ी राठौर का मसाला तो नहीं मिलेगा लेकिन फिल्म देखकर आपके मुंह से “पैसा वसूल” जरूर निकेलगा.


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